HEMASTROLOGY
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मन को वश में करना

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सारे कर्मों को सुधारने के लिए मन के कर्मों को सुधारना होता है और मन के कर्म को सुधारने के लिए मन पर पहरा लगाना होता है। कैसे कोई पहरा लगाएगा, जब यह ही नहीं जानता कि मन क्या है और कैसे काम करता है? उसका शरीर से क्या संबंध है और कैसे काम करता है? शरीर से कैसे प्रभावित होता है? वह शरीर को कैसे प्रभावित करता है? इस इंटर-एक्शन की वजह से कैसे विकास का उद्गम होता है, संवर्द्धन होता है। यह सारा कुछ कैसे जानेगा। पुस्तकों से नहीं जाना जा सकता, प्रवचनों से नहीं जान सकता। इसके लिए स्वयं काम करना पड़ेगा। अंतरमुखी होकर के काया में स्थित होना पड़ेगा। विपश्यना कोई जादू नहीं है, कोई चमत्कार नहीं है। कोई गुरु महाराज का आशीर्वाद नहीं है। यह काम करना पड़ता है। किसी देवी की कृपा नहीं, देवता की कृपा नहीं, स्वयं काम करना पड़ता है। अपने मन को मैंने बिगाड़ा, उसे सुधारने की मेरी जिम्मेदारी है और सुधारने का यह तरीका है। तो गहराइयों में जाकर के यह जो प्रतिक्रिया करने वाला स्वभाव है इसे दुर्बल बनाते जाएँ, दुर्बल बनाते जाएँ और मानस का यह साक्षीभाव का स्वभाव है उसे सबल बनाते जाएँ। पत्थर की लकीर जैसे संस्कार बनने न पाएँ। हम दिनभर न जाने कितने संस्कार बनाते हैं। प्रतिक्षण कोई न कोई संस्कार बनते ही रहता है, भीतर प्रतिक्रिया होती ही रहती है। रात को सोने से पहले जरा चिंतन करके देखें आज हमने कितने संस्कार बनाए? याद करके देखेंगे तो एक या दो, जिनका मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा वही उभरकर आएँगे। अरे, आज तो मैंने यह या वह बड़ा गहरा कर्म संस्कार बना लिया। महीने के आखिर में चिंतन करके देखेंगे, इस महीने भर में गहरे-गहरे कितने संस्कार बनाए? तो जितने गहरे संस्कार बनाए उनमें से एक या दो जो सबसे गहरे हैं वही उभरकर आएँगे। इस जीवन का अंतिम क्षण अगले जीवन के प्रथम क्षण का जनक है। जैसा बाप वैसा बेटा। वही गुण-धर्म स्वभाव ले करके जन्मेगा। अगले जन्म का पहला क्षण इस जन्म के अंतिम क्षण की संतान है वैसा ही होगा। तो अंतिम क्षण कैसा हो? विपश्यना करते-करते ये जो विपश्यना के संस्कार हैं, सजग रहने के संस्कार हैं, ये भी तो अपना बल रखते हैं। ये जागेंगे और मृत्यु के क्षण बहुत पीड़ा की अनुभूति हो रही है तो यह विपश्यना का संस्कार जिसने विज्ञान को बड़ा बलवान बनाया, वह समता से देख रहा है तो यह अंतिम क्षण बड़ा अच्छा क्षण हुआ। अंतिम क्षण हुआ तो अगला क्षण अपने आप अच्छा होगा। लोक सुधर जाएगा तो परलोक अपने आप सुधर जाएगा। तो विपश्यी साधक मरने की कला सीखता है। मरने की कला वही सीखेगा जिसने जीने की कला सीखी। जिसे जीना ही नहीं आया, अरे उसे मरना क्या आएगा

punarmjanm

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जो पैदा हुआ है हर कोई मरने के लिए है. It is the law of the animate (living) world that whoever is born must die. What happens to the body and the soul after death? यह कानून है कि चेतन () जो कोई भी मरना होगा कि दुनिया का जन्म होता है जी. शरीर और आत्मा को मरने के बाद क्या होता है? This always remains the question. यह हमेशा सवाल बना हुआ है. According to Vedic Scriptures the body perishes after death, but this is not the case with the soul. वैदिक ग्रंथों शरीर मरने के बाद perishes के मुताबिक, लेकिन यह आत्मा के साथ ऐसा नहीं है. The soul (Atma) in reality is beyond birth and death. वास्तविकता में आत्मा (आत्मा) जन्म और मृत्यु से परे है. The so called 'birth' of the soul is its entry into a body and its so-called 'death' is its separation from that body. आत्मा की इतनी 'नामक जन्म' एक शरीर और उसके कथित मौत 'कि शरीर से अलग है में अपनी प्रविष्टि है. After it discards a body the soul enters a new body in accordance with its actions (deeds). के बाद यह आत्मा अपने कार्यों (काम) के अनुसार एक नए शरीर में प्रवेश एक शरीर discards. This cycle is known as REBIRTH I REINCARNATION or PUNARJANM which यह चक्र पुनर्जन्म मैं अवतार या PUNARJANM के रूप में जाना जाता है, जो is one of the main principles of the Vedic Religion. एक वैदिक धर्म के मुख्य सिद्धांतों में से एक है. Birth and Death जन्म और मृत्यु The animate body comprises five elements: ether (space), air, fire, water and earth. इस चेतन शरीर पाँच तत्वों: (अंतरिक्ष), वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी व्योम हैं. When the soul enters the body it gives it life. जब आत्मा को यह जीवन देती है कि शरीर में प्रवेश करती है. The body becomes lively and starts performing deeds (actions). शरीर जीवंत हो जाता है और शुरू कर्मों (कार्यों) प्रदर्शन. It continues doing so as long as the soul resides in it. यह इतना के रूप में की आत्मा में बसती है देर कर रही है. When the body becomes aged, diseased or inactive due to certain reasons, the soul leaves it, causing it to become lifeless. जब शरीर, रोगग्रस्त अथवा कुछ कारणों से वृद्ध निष्क्रिय हो जाता है, आत्मा यह पत्तियां, यह बेजान बनने के कारण. This is known as DEATH. यह मौत के रूप में जाना जाता है.The dead body is unable to perform any action by itself. मृत शरीर को किसी भी कार्य करने के लिए अपने आप में असमर्थ है. According to the Vedic scriptures, the body is cremated (burnt) as mentioned in the Yajurved (40.15) “BHASMANTAM SHARIRAM”, ie the body burns to ashes. वैदिक ग्रंथों के अनुसार, शरीर () के Yajurved (40,15 में वर्णित के रूप में) "BHASMANTAM SHARIRAM", जल राख में शरीर जला अर्थात् अंतिम संस्कार है. “The elements of ether merges into the cosmic space, the life giving breath returns to the atmosphere, the heat of the body merge into the heat of the sun, the liquid unites with the water and the material body mixes with the earth. (Rigveda 10-16-3) "कॉस्मिक अंतरिक्ष में ईथर merges का तत्व है, जीवन के वातावरण के लिए, शरीर की गर्मी के सूरज की गर्मी में विलय सांस रिटर्न दे रही है, तरल पानी और भौतिक शरीर के साथ एकजुट पृथ्वी के साथ घुलमिल. (ऋग्वेद 10-16-3) The soul is immortal (does not die) आत्मा () मरता नहीं है अमर है

After death the body perishes, but the soul does not perish because it is, by nature, immortal. शरीर perishes मौत, लेकिन उसके बाद, क्योंकि यह है कि आत्मा, प्रकृति, अमर द्वारा नाश नहीं करता है. When the soul establishes a link with a body we refer to it as birth, and when it leaves the body we call it death. जब आत्मा, और हम यह करने के लिए जन्म के रूप में उल्लेख एक शरीर के साथ एक लिंक स्थापित जब हम इसे मौत फोन शरीर छोड़ देता है. This means that the soul existed before birth and will exist after death. यह है कि आत्मा को जन्म से पहले और मृत्यु के बाद अस्तित्व में मौजूद होगा. The Gita (2-23) very well describes the immortality of the soul thus: - “Weapons cannot injure it; fire cannot burn it; it cannot be soaked in water nor can the wind dry it.” इस गीता (2-23) बहुत अच्छी तरह से इस प्रकार आत्मा की अमरता का वर्णन: - "शस्त्र इसे चोट पहुंचाना नहीं कर सकते, आग इसे जला नहीं सकते, यह पानी में भिगो नहीं किया जा सकता है और न ही हवा यह शुष्क कर सकते हैं." What is Rebirth? क्या पुनर्जन्म है? At the time of death the soul does not die. आत्मा मरता नहीं है मौत के समय. What happens to it then? यह क्या होता है तो? The soul follows the cycle of birth after death and vice versa. आत्मा मृत्यु और विपरीत होने के बाद जन्म का चक्र चलता है. It is always discarding an old body and entering a new one. यह हमेशा एक पुरानी शरीर discarding है और एक नए एक में प्रवेश. This is known as rebirth. यह पुनर्जन्म के रूप में जाना जाता है. The body undergoes three stages, ie childhood, youth and old age. शरीर तीन चरणों, अर्थात् बचपन, जवानी और बुढ़ापे undergoes. Similarly, death can be understood as the fourth stage when the soul departs from the old body to reside in a new one. इसी प्रकार, मौत के चौथे चरण जब पुराने शरीर से आत्मा departs एक नया एक में निवास करने के रूप में समझा जा सकता है. Gita (2-22) clarifies this point further: - “Just as a person discards old and dirty clothes and puts on new ones, so does the soul discard the old or weak body and enters a new one.” गीता (2-22) इस बिंदु आगे: स्पष्ट किया - "बस के रूप में एक व्यक्ति के पुराने और गंदे कपड़े और नए discards पर डालता है, तो पुराने या कमजोर शरीर त्यागने और एक नए एक में प्रवेश की आत्मा है." Rebirth and the Law of Action (Karm Phal) पुनर्जन्म और लड़ाई की विधि (कर्म Phal) The principle of Rebirth is tied up with the Law of Action. पुनर्जन्म का सिद्धांत लड़ाई के कानून से बंधा हुआ है. One reaps good or bad fruits in accordance with one's actions. एक की कार्रवाई के साथ एक काटनेवाला अनुसार अच्छा या बुरा फल. The Principle of Law of Action applies to both the present life and the life to come, ie the life after death. सिद्धांत कानून की लड़ाई के दोनों वर्तमान जीवन और जीवन में आने के लिए, मृत्यु के बाद जीवन अर्थात् लागू होता है. The soul carries with it the impressions of its actions into the next life. आत्मा के साथ अगले जीवन में अपने कार्यों के छापों वहन करती है. Happiness and sorrows are associated with life from birth. खुशी और गम जन्म से जीवन के साथ जुड़े रहे हैं. Children are born under varied conditions and circumstances. बच्चे विभिन्न स्थितियों और परिस्थितियों में जन्म लेते हैं. Some are born cripple or lame, some healthy and some strong. कुछ अपंग या लंगड़ा पैदा कर रहे हैं, कुछ और कुछ मजबूत स्वस्थ. Some take birth in poor homes while others in rich homes. कुछ गरीब घर में जन्म लेने जबकि अमीरों के घरों में अन्य. Some are intelligent, while some are mentally retarded. कुछ है, जबकि कुछ मानसिक रूप से मंद हो बुद्धिमान होते हैं. Why are these differences found amongst children? क्यों इन बच्चों के बीच मतभेद पाए जाते हैं? Even children born in one home of the same parents have differences among them. यहाँ तक कि बच्चों को एक ही माता पिता के एक घर में पैदा हुए उनके बीच मतभेद हैं. Anyone who believes in the Justice of God will not accept that such differences are brought about by acts of God. जो न्याय परमेश्वर का में कहा कि इस तरह के मतभेदों को भगवान का काम करता है के बारे में द्वारा लाया है मानना है कि कोई भी स्वीकार नहीं करेंगे. God cannot practice such thoughtless acts. भगवान ऐसी अल्हड़ कृत्यों प्रैक्टिस नहीं कर सकता. If He does, then He is unfair and unjust, which He is not. यदि वह हो, तो वह अनुचित है और अन्याय करता है, वह है जो नहीं है. These differences help to prove the principle of Rebirth, that is, a person takes birth according to one's actions in the previous life. इन मतभेदों, कि, एक व्यक्ति पिछले जीवन में एक के कार्यों के अनुसार जन्म लेता है पुनर्जन्म के सिद्धांत को साबित करने के लिए मदद करते हैं. One reaps in the present life the fruits of his or her actions of the past life. वर्तमान जीवन में एक काटनेवाला पिछले जीवन की अपनी कार्रवाई का फल. It is with the justice meted out by God that one takes birth according to one's past actions. God is omniscient. ऐसा लगता है कि एक एक के अतीत के कार्यों. भगवान के अनुसार जन्म लेता है न्याय भगवान द्वारा meted के साथ सर्वज्ञ है. He operates with justice and thoughtfulness. वह न्याय और सावधानी के साथ काम करती है. He shows no favouritism and does not make mistakes. वह और कोई पक्षपात दिखाती गलती नहीं है. A person has to accept God's justice and undergo happiness or suffering according to one's deeds in his or her previous life. एक व्यक्ति भगवान के न्याय को स्वीकार करने के लिए और एक के कामों के लिए अपनी पिछली जिंदगी में अनुसार खुशी या पीड़ा से गुजरना है.Even though we realise that such persons are suffering through their own actions, it is our duty to lessen their suffering through appropriate means. हालांकि हम जानते हैं कि ऐसे लोगों को अपने कार्यों के माध्यम से पीड़ित हैं एहसास, यह हमारा कर्तव्य उचित का मतलब के माध्यम से अपनी पीड़ा को कम करने के लिए है. The theory of Rebirth enables one to understand the cycle of life and death and realise the justice and orderliness in the creation of God. पुनर्जन्म के सिद्धांत का एक जीवन और मृत्यु के चक्र को समझने में सक्षम बनाता है और परमेश्वर के सृजन में न्याय और सुव्यवस्था एहसास. Thus the principle of Rebirth and the Laws of action (karm) are inseparable. इस प्रकार पुनर्जन्म के सिद्धान्त और क्रिया (कर्म) के नियमों को अलग नहीं कर रहे हैं. Rebirth and past Memories पुनर्जन्म और पिछले यादें The theory of Rebirth raises the question, “why are we unable to recall events of our past lives?” When we examine deeply, we find that we are forgetful of many events even in our present life. पुनर्जन्म का सिद्धांत, "क्यों हम अपने अतीत के जीवन की घटनाओं को याद करने में असमर्थ रहे हैं?" जब हम गहराई से जांच के सवाल उठाता है, हम है कि हम कई घटनाओं की हमारी वर्तमान जीवन में भी भुलक्कड़ हो पाते हैं. It is difficult to remember what we ate only a few days ago and even more difficult to remember events of childhood days. यह हम केवल कुछ ही दिन पहले और भी अधिक बचपन के दिनों की घटनाओं को याद करना कठिन क्या खाया याद रखना मुश्किल है. Life ends in death and changes the existing circumstances completely. जीवन मृत्यु और बदलाव मौजूदा परिस्थितियों में पूरी तरह से समाप्त हो जाती है. Therefore it is natural to forget all events associated with previous lives. इसलिए यह सब घटनाओं पिछले जीवन से संबंधित भूल जाना स्वाभाविक है.

*** स्वर्ग, नर्क, पुनर्जन्‍म और हम *

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उपनि‍षदों में कर्म तथा पुनर्जन्‍म की अवधारणाओं को एक सि‍द्धान्‍त का रूप दि‍या गया है. कठोपनि‍षद् के अनुसार कि‍ मृतक की आत्‍मा नया शरीर (पुनर्जन्म)लेती है. आत्‍मा अपने कर्म तथा ज्ञान के अनुसार जड़ वस्‍तुओं जैसे पेड़ या पौधों का स्‍वरूप भी ग्रहण कर सकती है.

 

न जायते भ्रियते भ्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोअयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
वासांसि जीर्णानियथा विहाय नवानि गृहान्ति नरोअराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

मृत्यु से आत्मा का अन्त नहीं होता, आत्मा विभिन्न योनियों में जन्म लेती है. चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के पश्चात् जीव मनुष्य जैसे दुर्लभ शरीर को प्राप्त करता है. योनियों में क्रमशः विकासवा द के सिद्धांत का पालन किया जाता है. अर्थात् स्वेदज, उद्भिज, अन्डज, जरायुज क्रमशः एक के बाद दूसरी कक्षा की योग्यता और शक्ति बढ़ती जाती है. स्वेदज जीव में जितना ज्ञान और विचार है, उसकी अपेक्षा उद्भिजों की योग्यता बढ़ी हुई है. इसी प्रकार योग्यता बढ़ते-बढ़ते शरीरों की बनावटी में भी अन्तर होने लगता है और पूर्ण उन्नति एवं विकास होने पर मानव शरीर प्राप्त हो जाता है. मनुष्य योनि इस संसार की सर्वश्रेष्ठ योनि है. अन्ततः इसी जीव नीचे से ऊपर की ओर या तुच्छता से महानता के ओर लगातार बढ़ते चले आ रहे हैं. आत्मा ही बढ़ते-बढ़ते परमात्मा हो जाती है. अर्थात पुनर्जन्म से मुक्त हो जाती है.
पुनर्जन्म की धुरी नैतिकता में रखी गई है जिससे समाज तथा व्यक्ति दोनों को ही लाभ होता है. इसमें विश्वास करने वाला व्यक्ति यह मानता है कि 'मेरी जैसी ही आत्मा सबकी है और सबकी जैसी ही मेरी आत्मा है.' मतलब ये कि ''मेरी आत्मा की अवस्था भूतकाल में अन्य जीवों जैसी हुई है और भविष्य में भी हो सकती है. सभी जीव किसी न किसी समय मेरे-माता-पिता आदि सम्बंधी रहे हैं और भविष्य में भी रह सकते हैं.''
इससे मनुष्य का सब जीवों के प्रति प्रेम और भ्रातृत्व भाव बढ़ता है इससे यह भी पता चलता है कि जीव की कोई योनि शाश्वत नहीं है. हिन्दू धर्म के अनुसार परलोक में अनंतकालीन स्वर्ग या अनन्तकालीन नरक नहीं है, जीव के किसी जन्म या किन्हीं जन्मों के पुण्य या पापों में ऐसी शक्ति नहीं है कि सदा के लिए उस जीव या भाग्य निश्चित कर दे. वह पुरुषार्थ से सुपथगामी होकर आत्म-उन्नत अवस्था को प्राप्त कर सकता है.

 

स्वर्ग और नर्क



भारतीय संस्कृति में स्वर्ग और नर्क का विधान है । शुभ कार्यों से स्वर्ग और निंदनीय कार्यों, दुराचरण, पाप आदि से नर्क की कठोर यातनाएँ भुगतनी पड़ती हैं- हम यह मानते आये हैं । स्वर्ग को नाना नामों से पुकारा गया है ।
‍इसका एक नाम ब्रह्मलोक भी है कहा गया हैः-


तेषां में वैष ब्रह्मलोको येषां, तपो ब्रह्मचर्य येषु सत्यं प्रतिष्ठितम् ।


जिनमें तप ब्रह्मचर्य है, सत्य प्रतिष्ठित है, उन्हें ब्रह्मलोक मिलता है । जिनमें न तो कुटिलता है और न मिथ्या आचरण है और न कपट है, उन्हीं को विशुद्ध ब्रह्मलोक मिलता है ।
जिस मानव में आशंका, दुःख, चिन्ता, भय, कष्ट, क्षोभ और निरुत्साह है, भोग- विलास और तृष्ण है वही नकर है जो धर्म-पालन, ईश्वर की सत्ता से विमुख है नास्तिक है, वह नरक में जाते हैं । नष्ट हो जाते हैं । काम, क्रोध, लोभ, मोह ये चारों नर्क के द्वार हैं । इनमें से किसी के भी वश में पड़ जाने पर नर्क में पड़ा हुआ समझना चाहिए । अशुभ वासनाओं के भ्रम-जाल में पड़कर मनुष्य दारुण नर्क की यन्त्रणा में फँस सकता है । अन्य प्राणी तो क्षुधा और वासनाओं के जंजाल में बँधे हुए वासना-तृप्ति में ही जीवन नष्ट कर रहे हैं । वे नवीन कर्मों के द्वारा अपने को समुन्नत करने का प्रयत्न नहीं करते, पर मनुष्य कर्मयोनि में रहकर नये संस्कारों का उपार्जन करने वाला प्राणी है । उसके सामने दो मार्ग हैं, एक तो बन्धन या नरक का और दूसरा मोक्ष या स्वर्ग का । संसार के भोगों में फँस हुआ मानव नर्क में ही पड़ा हुआ है । इसके विपरीत, सत्संग, परोपकार, शुभ कार्य, समाज-सेवा, आत्म-सुधार द्वारा मनुष्य मोक्ष की ओर अग्रसर होता है ।

 
जो व्यक्ति शास्त्र-निषिद्ध कर्मों में पाप-प्रवृतियों में लगे रहते हैं, वे बार-बार आसुरी योनि को तथा अधम गति को प्राप्त होते हैं । (गीता १२-२०) विषयासक्ति में पड़े हुए भोगों को लगातार भोगने वाले नर्क में जाते हैं । सांसारिक भोग सुखों की प्राप्ति के साधन रूप सकाम-रूप से भिन्न यथार्थ कल्याण को न जानने वाले व्यक्ति पापों के परिणामस्वरूप हीन योनियों (कीट, पतंगे, शूकर या वृक्ष, पत्थर इत्यादि) में जाते हैं ।
पौराणिक मान्यता यह है कि स्वर्ग और नर्क दो भिन्न-भिन्न लोक है । दण्ड या पुरस्कार प्राप्ति के लिये मनुष्य वहाँ जाता है । वहाँ अपने पुण्य-पाप का पुरस्कार प्राप्त कर जीवन पुनः इस लोक में आता है ।
दूसरी मान्यता यह है कि स्वर्ग और नर्क स्वयं मनुष्य में ही विद्यमान हैं ये उसके मन के दो स्तर हैं मनुष्य के मन में स्वर्ग की स्थिति वह है जिसमें देवत्व के सद्गुणों का पावन प्रकाश होता है । दया, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, उदारता की धाराएँ बहती हैं । इस स्थिति में मन स्वतः प्रसन्न रहता है । यही मानसिक मार्ग कल्याणकारी है । अतः इसे स्वर्ग की स्थिति भी कहा जा सकता है । दूसरी मनःस्थिति वह है जिसमें मनुष्य उद्वेग, चिंता, भय, तृष्णा, प्रतिशोध, दम्भ आदि राक्षसी वृत्तियाँ मनुष्य को अन्धकूप में डाल देती हैं । अनुताप और क्लेश की काली और मनहूस मानसिक तस्वीरें चारों ओर दिखाई देती हैं । अन्तर्जगत् यन्त्रणा से व्याकुल रहता है । कुछ भी अच्छा नहीं लगता । शोक, संताप और विलाप की प्रेतों जैसी आकृतियाँ अशान्त रखती हैं । यही नर्क की मनःस्थिति है । इस प्रकार इस जगत् में रहते हुए मानव-जीवन में ही हमें स्वर्ग और नर्क के सुख-दुःख प्राप्त हो जाते हैं । भारतीय संस्कृति के अनुसार सम्भव है कि अपने पवित्र कर्मों द्वारा आपको इसी जगत् में मनःशान्ति, सुख, स्वास्थ्य, संतुलन, इत्यादि प्राप्त हो जाए, या अपने कुकृत्यों द्वारा अशांति, द्वेष, वैर, तृष्णा, लोभ आदि का नर्क मिले ।

क्या वास्तविकता में स्वर्ग या नर्क होते हैं जहाँ मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार पुण्य-पाप का पुरस्कार मिलता है? मनुष्य की आत्मा मृत्यु उपरांत कहाँ जाती है? क्या पुनर्जन्म होते है जिसमें चौरासी लाख योनियों में के बाद मनुष्य जीवन मिलता है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर आधुनिक बिज्ञान चुप्पी साधे हुए है।

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मौत की लंबी खुमारी सुबह से ही आकाश की हालत खराब है। नींद पर नींद आए जा रही है। उठ रहा है, सो रहा है। रात दस बजे का सोया सुबह नौ बजे उठा। लेकिन ग्यारह घंटे की पूरी नींद के बावजूद उठने के पंद्रह मिनट बाद फिर सो गया। इसके बाद उठा करीब सवा ग्यारह बजे। लेकिन मुंह-हाथ धोने और नहाने के बाद भी उसे नींद के झोंके आते रहे। बस चाय पी और सो गया। दो बजे उठकर खाना खाया और फिर सो गया। आकाश को समझ में नहीं आ रहा था कि यह हफ्ते भर लगातार बारह-बारह, चौदह-चौदह घंटे काम करने का नतीजा है या मौत की उस लंबी खुमारी का जो एक अरसे से उस पर सवार थी।
मौत की खुमारी बड़ी खतरनाक होती है, आपको संज्ञा-शून्य कर देती है। इसमें डूबे हुए शख्स को मौत की नींद कब धर दबोचेगी, उसे पता ही नहीं चलता। आखिर खुमारी और नींद में फासला ही कितना होता है। कब आप झीने से परदे के उस पार पहुंच गए, पता ही नहीं चलता। आकाश की ये खुमारी कब से शुरू हुई, खुमारी के चलते उसे कुछ भी याद नहीं। याददाश्त भी बहुत मद्धिम पड़ गई है। लेकिन लगता है कि इसकी शुरुआत साल 1982 की गरमियों में उस दिन से हफ्ता-दस दिन पहले हुई थी, जब उसने कुछ लाइनें एक कागज पर लिखी थीं। वह कागज तो पत्ते की तरह डाल से टूटकर छिटक चुका है और समय की हवा उसे उड़ा ले गयी है। लेकिन आकाश के जेहन में एक धुंधली-सी याद जरूर बची है कि उसने क्या लिखा था। शायद कुछ ऐसा कि...


कल मैंने सुन ली सधे कदमों से चुपके से पास आई मौत की आहटरुई के फाहों से थपकियां दे रही थी वोसंगीत के मद्धिम सुरों के बीच प्यारा-सा गीत गुनगुना रही थी वोएक अमिट अहसास देकर चली गई वोमुझे पूरी तसल्ली से बता गई वो कि... एक दिन कोहरे से घिरी झील की लंबी शांत सतह सेपरावर्तित होकर उठेगा वीणा का स्वरइस स्वर को कानों से नहीं, प्राणों से पीनाऔर फिर सब कुछ विलीन हो जाएगा... उस दिन, ठीक उसी दिन मेरे प्रिय, तुम्हारी मौत हो चुकी होगी।
ये कुछ लाइनें ही नहीं, मौत की इतनी खूबसूरत चाहत थी कि आकाश ने मौत से डरना छोड़ दिया। ज़िंदगी महज एक बायोलॉजिकल फैक्ट बन गई और मौत किसी प्रेतिनी की तरह खुमारी बनकर उस पर सवार हो गई। उम्र का बढ़ना ही रुक गया। जिंदगी के बीच का दस साल का टुकड़ा तो ऐसे गायब हो गया जैसे कभी था ही नहीं। फिर पांच-पांच साल एक साल की तरह गुजरते रहे। अजीब हाल था उसका। खुद के बोले गए शब्द लगता था कोई और बोल रहा है और उनकी प्रतिध्वनि उसके कानों में गूंज रही है। रिश्तों-नातों सभी के असर से वह इम्यून हो चुका था। किसी से प्यार नहीं करता वो, किसी की केयर नहीं करता था वो। बस जो सिर पर आ पड़े, उसी का निर्वाह करता था वो।आकाश जिंदगी को इसी तरह खानापूरी की तरह जीता जा रहा था कि एक दिन दूर देश से आई राजकुमारी से उसे छू लिया और उसकी सारी तंद्रा टूट गई। मन पर छाया सारा झाड़-झंखाड़ हट गया। मकड़ी के जाले साफ हो गए। खुमारी टूट गई। वह जाग गया। लेकिन सात साल बाद फिर वैसी ही खुमारी, वैसी ही नींद के लौट आने का राज़ क्या है? prchis_ln = 'hi';prchis_url = 'http://diaryofanindian.blogspot.com/2007/09/blog-post_30.html';prchis_title = 'मौत की लंबी खुमारी';
जब करने बैठा उम्र का हिसाब-किताब आकाश आज अपनी उम्र का हिसाब-किताब करने बैठा है। कितना चला, कितना बैठा? कितना सोया, कितना जागा? कितना उठा, कितना गिरा? कितना खोया, कितना पाया? अभी कल ही तो उसने अपना 46वां जन्मदिन मनाया है। 28 सितंबर। वह तारीख जब भगत सिंह का जन्मदिन था, लता मंगेशकर का था, कपूर खानदान के नए वारिस रणबीर कपूर का था और उसका भी। हो सकता है इस तारीख में औरों के लिए बहुत कुछ खास हो। लेकिन उसके लिए यह एक मामूली तारीख है। बस, समय की रस्सी पर बांधी गई एक गांठ। हां, अनंत से लटकी इस रस्सी पर आकाश को कहां तक चढ़ना है, उसे नहीं मालूम। चढ़ना है तो चढ़ रहा है क्योंकि नीचे उतरने के लिए रस्सी हमेशा अंगुल भर ही बची रहती है।
सच कहूं तो आकाश को यह भी अहसास नहीं है कि 46 साल की उम्र के मायने क्या होते हैं। छोटा था तो 46 की उम्र बहुत बड़ी उम्र हुआ करती थी। 50 से सिर्फ चार साल कम। यानी बज्र बुढ़ापे से एकदम करीब। लेकिन आज तो उसे लगता है कि उसकी उम्र कहीं 20 साल पहले अटक कर रह गई है। रस्सी आपस में ऐसा उलझ गयी है कि नई गांठ लग ही नहीं रही। उम्र से इम्यून हो जाने का वक्त शायद तब आया था जब वह 22 साल का था और यूनिवर्सिटी से पढ़ाई पूरी करके निकला ही था।
उसे याद आया कि उसके एक सीनियर थे सूरज नारायण श्रीवास्तव। शायद एटा, मैनपुरी या फर्रुखाबाद के रहनेवाले थे। उनके घर की छत से सटा बिजली का 11000 वोल्ट का हाईवोल्टेज तार गुजरता था। छुटपन में छत पर पतंग पकड़ने के चक्कर में सूरज नारायण श्रीवास्तव एक बार इस तार से जा चिपके। सारा शरीर झुलस कर काला पड़ गया। लेकिन 18 दिन बाद वे भले चंगे हो गए। तभी से वे बिजली की करंट से पूरी तरह इम्यून हो गए। वे एक तार मुंह में और एक तार प्लग में डालकर मजे में स्विच ऑन-ऑफ कर सकते थे। इस दौरान किसी को अपनी उंगली भी छुआ दें तो उसे बिजली का झटका ज़ोरों से लगता था।

मैं यह पता लगाने में जुटा हूं कि आकाश को ऐसा कौन-सा झटका लगा था कि वह उम्र के असर से इम्यून हो गया। 22 साल के बाद हर पांच साल उसके लिए एक साल के बराबर रहे हैं और अब भले ही उसकी उम्र 46 साल हो गई हो, लेकिन वह 26 साल का ही है, मानसिक रूप से भी और शारीरिक रूप से भी।
लेकिन इधर कुछ सालों से उसे अपनी उम्र के बढ़ते जाने का अहसास ज़रूर होने लगा है। उसे यह अहसास पकते बालों ने नहीं कराया, न ही माथे के ऊपर और आंखों के नीचे बनती झुर्रियों ने। उसे यह अहसास कराया, अपने साथ के लोगों, जिनके साथ उसने ज़िंदगी का अब तक का सफर तय किया है, उनकी मौत ने। अभी कल ही की तो बात है। उसे एक पुराने परिचित बुजुर्ग का नाम नहीं याद आ रहा था। फौरन उसने मोबाइल उठाया और सविता से पूछने के लिए नंबर मिलाने लगा। तभी उसे याद आया कि सविता तो तीन महीने पहले ही मर चुकी है। उसने सविता का नंबर फोनबुक से डिलीट किया। साथ ही प्रदीप का भी जो हफ्ते भर पहले ही राजस्थान में एक सड़क हादसे का शिकार हो गया है।
वैसे, औरों की मौत और अपनी उम्र के बढ़ने के तार जुड़े होने का विचार आकाश के मन में तब कौंधा था, जब उस साथी की मरने की खबर उसे पता चली जिनके व्यक्तित्व से वह चमत्कृत रहता था। साथी जब पद्मासन जैसी मुद्रा में बैठकर बोलने लगते थे तो लगता था जैसे उनका अनहद जाग गया हो। हर समस्या का हल, हर सवाल का जवाब। अजीब-सी रहस्यमय मुस्कान उनके चेहरे पर रहती थी, जैसे सहस्रार कमल से जीवन अमृत बरस रहा हो और उसका आस्वादन करके वे मुदित हुए हो जा रहे हों।
साथी की मौत हार्ट अटैक से हुई थी। उसके बाद आकाश के मामा का लड़का आपसी रंजिश में मारा गया। चार महीने बाद मामा भी मर गए। उसके बाद सविता की मौत हुई और आखिर में प्रदीप की। बाबूजी ने बहुत कहा था कि तुम यह तो सोचो कि तुमने अभी तक अपनी जिद से क्या पाया और क्या खोया है। वह उनकी बात बराबर एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालता रहा। लेकिन इन पांच मौतों के बाद आकाश ने अब पीछे मुड़कर देखना शुरू कर दिया है कि मैराथन में साथ चले लोगों में से कौन-कौन निपट गया और अगल-बगल दौड़ रहे लोग कौन हैं। उसने अब अपनी उम्र का हिसाब-किताब करना शुरू कर दिया है!!!

  'जब करने बैठा उम्र का हिसाब-किताब';
महापुरुष नहीं होते हैं शहीदगत सिंह ज़िंदा होते तो आज सौ साल के बूढ़े होते। कहीं खटिया पर बैठकर खांस रहे होते। आंखों से दिखना कम हो गया होता। आवाज़ कांपने लग गई होती। शादी-वादी की होती तो दो-चार बच्चे तीमारदारी में लगे होते, नहीं तो कोई पूछनेवाला नहीं होता। जुगाड़ किया होता तो पंजाब और केंद्र सरकार से स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन पा रहे होते। एक आम आदमी होते, जिनका हालचाल लेने कभी-कभार खास लोग उनके पास पहुंच जाते। लेकिन वैसा नहीं होता, जैसाआज हो रहा है कि पुश्तैनी गांव में जश्न मनाया जाता, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सिक्का जारी करते और नवांशहर का नाम बदलकर शहीद भगत सिंह शहर कर दिया जाता।
भगत सिंह के जिंदा रहने पर उनकी हालत की यह कल्पना मैं हवा में नहीं कर रहा। मैंने देखी है पुराने क्रांतिकारियों की हालत। मैंने देखी है गोरखपुर के उस रामबली पांडे की हालत, जिन्होंने सिंगापुर से लेकर बर्मा और भारत तक में अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ी थी। उनकी पत्नी को सिंगापुर में क्रांतिकारी होने के नाते फांसी लगा दी गई। हिंदुस्तान आज़ाद हुआ, तब भी पांडे जी अवाम की बेहतरी के लिए लड़ते रहे। पहले सीपीआई छोड़कर सीपीएम में गए, फिर बुढ़ापे में सीपीआई-एमएल से जुड़ गए, नक्सली बन गए। नक्सली बनकर किसी खोह में नहीं छिपे। हमेशा जनता के बीच रहे। इलाके में हरिशंकर तिवारी से लेकर वीरेंद्र शाही जैसे खूंखार अपराधी नेता भी उन्हें देखकर खड़े हो जाते थे। लेकिन जीवन की आखिरी घड़ियों में उनकी हालत वैसी ही थी, जैसी मैंने ऊपर लिखी है।
असल में क्रांतिकारी शहीद की एक छवि होती है, वह एक प्रतीक होता है, जिससे हम चिपक जाते हैं। जैसे जवान या बूढ़े हो जाने तक हम अपने बचपन के दोस्त को याद रखते हैं, लेकिन हमारे जेहन में उसकी छवि वही सालों पुरानी पहलेवाली होती है। हम उस दोस्त के वर्तमान से रू-ब-रू होने से भय खाते हैं। खुद भगत सिंह को इस तरह की छवि का एहसास था। उन्होंने फांसी चढाए जाने के एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को साथियों को संबोधित आखिरी खत में लिखा है...


मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है। इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊंचा मैं हरगिज़ नहीं हो सकता। आज मेरी कमज़ोरियां जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फांसी से बच गया तो वे ज़ाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिह्न मद्धिम पड़ जाएगा या संभवत: मिट ही जाए।
हर क्रांतिकारी या शहीद एक आम इंसान होता है। खास काल-परिस्थिति में वो देश-समाज में उभरती नई शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। और ऐसे क्रांतिकारियों की धारा रुकती नहीं है। हमेशा चलती रहती है। हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम शहीद क्रांतिकारियों को महापुरुष मानकर भगवान जैसा दर्जा दे देते हैं। अपने बीच में उनकी निरंतरता के दर्शन नहीं करते। फोटो या मूर्ति में हनुमान जी हमें बड़े श्रद्धेय लगते हैं लेकिन खुदा-न-खास्ता वही हनुमान जी अगर सड़क पर आ जाएं तो उनके पीछे कुत्ते दौड़ पड़ेंगे और हम भी उन्हें बहुरुपिया समझ कर पत्थर मारेंगे।

आज भगत सिंह की सौवीं जन्मशती पर मेरा यही कहना है कि सरकार या सत्ता प्रतिष्ठान के लोगों को उनकी पूजा अर्चना करने दीजिए। हमें तो भगत सिंह को अपने अंदर, अपने आसपास देखना होगा ताकि हम उनके अधूरे काम को अंजाम तक पहुंचाने में अपना योगदान कर सकें। शहीदों को महापुरुष मानना उन्हें इतिहास की कब्र में दफ्न कर देने जैसा है। शहीदों की चिताओं पर हर बरस मेले लगाने का बस यही मतलब हो सकता है कि हम उनसे प्रेरणा लेकर उनकी निरतंरता को देखें, उनके सपनों को अपनी आंखों में सजाएं और इन सपनों को आज के हिसाब से अपडेट करें। फिर उसे ज़मीन पर उतारने के लिए अपनी सामर्थ्य भर योगदान करें। prchis_ln = 'hi';prchis_url = 'http://diaryofanindian.blogspot.com/2007/09/blog-post_1820.html';prchis_title = 'महापुरुष नहीं होते हैं शहीद';
विचारों और गुरुत्वाकर्षण में है तो कोई रिश्ता!सुनीता विलियम्स इस समय भारत में हैं और शायद आज हैदराबाद में 58वीं इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉटिकल कांग्रेस (आईएसी) के खत्म होने के बाद वापस लौट जाएंगी। वैसे तो उनसे मेरा मिलना संभव नहीं है। लेकिन अगर मिल पाता तो मैं उनसे एक ही सवाल पूछता कि जब आप 195 दिन अंतरिक्ष में थीं, तब शून्य गुरुत्वाकर्षण की स्थिति में आपके मन के कैसे विचार आते थे, आते भी थे कि नहीं? कहीं उस दौरान आप विचारशून्य तो नहीं हो गई थीं?
असल में एक दिन यूं ही मेरे दिमाग में यह बात आ गई कि हमारे विचार गुरुत्वाकर्षण शक्ति का ही एक रूप हैं। स्कूल में पढ़े गए ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत से इस विचार को बल मिला और मुझे लगा कि जहां गुरुत्वाकर्षण बल नहीं होगा, वहां विचार और विचारवान जीव पैदा ही नहीं हो सकते।
जिस तरह चिड़िया अपने पंख न फड़फड़ाए या हेलिकॉप्टर अपने पंख न घुमाए तो वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ेगा, उसी तरह इंसान विचार न करे तो वह धरती में समा जाएगा, मिट्टी बन जाएगा। वैसे मुझे पता है कि यह अपने-आप में बेहद छिछला और खोखला विचार है क्योंकि अगर ऐसा होता तो धरती के सभी जीव विचारवान होते, जानवर, पेड़-पौधों और इंसान के मानस में कोई फर्क ही नहीं होता। फिर मुझे ये भी लगा कि हम अपने ब्रह्माण्ड के बारे में जानते ही कितना हैं?
अभी-अभी
मैंने पढ़ा है कि हम अपने ब्रह्माण्ड के बारे में बमुश्किल 4 फीसदी ही जानते हैं। यह मेरे जैसे मूढ़ का नहीं, 1980 में नोबेल पुरस्कार जीतनेवाले भौतिकशास्त्री जेम्स वॉट्सन क्रोनिन का कहना है। आपको बता दूं कि क्रोनिन को यह साबित करने पर नोबेल पुरस्कार मिला था कि प्रकृति में सूक्ष्मतम स्तर पर कुछ ऐसी चीजें हैं जो मूलभूत सिमेट्री के नियम से परे होती हैं। उन्होंने अंदाज लगाया है कि कॉस्मिक उर्जा का 73 फीसदी हिस्सा डार्क एनर्जी और 23 फीसदी हिस्सा डार्क मैटर का बना हुआ है। इन दोनों को मिलाकर बना ब्रह्माण्ड का 96 फीसदी हिस्सा हमारे लिए अभी तक अज्ञात है। बाकी बचा 4 फीसदी हिस्सा सामान्य मैटर का है जिसे हम अणुओं और परमाणुओं के रूप में जानते हैं।
डार्क मैटर का सीधे-सीधे पता लगाना मुमकिन नहीं है क्योंकि इससे न तो कोई विकिरण होता है और न ही प्रकाश का परावर्तन। मगर इसके होने का एहसास किया जा सकता है क्योंकि इसका गुरुत्वाकर्षण बल दूरदराज की आकाशगंगाओं से आते प्रकाश को मोड़ देता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वे डार्क मैटर के गुण और लक्षणों के बारे में तो थोड़ा-बहुत जानते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि यह किन कणों से बना है। हो सकता है कि ये अभी तक न खोजे गए ऐसे कण हों जो उस बिग बैंग से निकले हों जिससे करीब 13 अरब साल पहले ब्रह्माण्ड की रचना हुई थी।
माना जा रहा है कि यह एक सुपर-सिमेट्रिक कण न्यूट्रालिनो हो सकता है, जिसके वजूद को अभी तक साबित नहीं किया जा सका है। भौतिकशास्त्री अगले दस सालों में तीन प्रमुख सवालों का जवाब तलाशना चाहते हैं। एक, कॉस्मिक किरणें कहां से निकली हैं? दो, न्यूट्रालिनो का भार (मास) क्या है? और तीन, गुरुत्वाकर्षण तरंगें क्या हैं, उनके प्रभाव क्या होते हैं?
माना जाता है कि जिस तरह नांव पानी में चलने पर अगल-बगल लहरें पैदा करती है, उसी तरह नक्षत्र या ब्लैक-होल अपनी गति से दिक और काल के रेशों में गुरुत्वाकर्षण तरंगें पैदा करते हैं। इस तंरगों को पकड़ लिया गया तो ब्रह्माण्ड की 73 फीसदी डार्क एनर्जी को समझा जा सकता है। इसी तरह न्यूट्रालिनो को मापना बेहद-बेहद मुश्किल है क्योंकि ये तकरीबन प्रकाश की गति से चलते हैं, मगर इनमें कोई इलेक्ट्रिक चार्ज नहीं होता और ये किसी भी सामान्य पदार्थ के भीतर से ज़रा-सा भी हलचल मचाए बगैर मज़े से निकल जाते हैं। इस न्यूट्रालिनो का पता चल गया तो ब्रह्माण्ड के 23 फीसदी डार्क मैटर का भी पता चल जाएगा।
उफ्फ...इस डार्क मैटर और एनर्जी के चक्कर में गुरुत्वाकर्षण और विचारों के रिश्ते वाली मेरी नायाब सोच पर विचार करना रह ही गया। और, अब लिखूंगा तो यह अपठनीय पोस्ट और भी लंबी हो जाएगी। इसलिए अब पूर्णविराम। लेकिन आप मेरी नायाब सोच पर सोचिएगा ज़रूर।

= 'विचारों और गुरुत्वाकर्षण में है तो कोई रिश्ता!';
चीन और भारत बराबर भ्रष्ट हैं चीन विकास के बहुत सारे पैमानों पर भारत से आगे हो सकता है, लेकिन भ्रष्टाचार के पैमाने पर दोनों दुनिया में इस साल 72वें नंबर पर हैं। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल कीमें यह बात कही गई है। लेकिन ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के प्रमुख हुग्युत्ते लाबेले के मुताबिक उनका करप्शन परसेप्शंस इंडेक्स (सीपीआई) असली भ्रष्टाचार का पैमाना नहीं है, बल्कि यह दर्शाता है कि दुनिया के विशेषज्ञ किसी देश को कितना भ्रष्ट मानते हैं। इन विशेषज्ञों का चयन कैसे किया जाता है, इसके बारे में ट्रासपैरेंसी इंटरनेशनल की साइट कुछ नहीं बताती।
इस बार 180 देशों का सीपीआई निकाला गया और इसमें न्यूज़ीलैंड, डेनमार्क और फिनलैंड 10 में 9.4 अंकों के साथ सबसे ऊपर हैं, जबकि सोमालिया और म्यांमार 1.4 अंक के साथ आखिरी पायदान पर हैं। इनके ठीक ऊपर 1.5 अंक के साथ अमेरिकी आधिपत्य वाले इराक का नंबर आता है। भारत और चीन के 3.5 अंक हैं। इतने ही अंकों से साथ इसी पायदान पर सूरीनाम, मेक्सिको, पेरू और ब्राजील भी मौजूद हैं। भारतीय महाद्वीप में हमसे ज्यादा भ्रष्ट क्रमश: श्रीलंका (3.2), नेपाल (2.5), पाकिस्तान (2.4) और बांग्लादेश (2.0) हैं। लेकिन श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान इस बात पर संतोष कर सकते हैं कि रूस 2.3 अंक के साथ उनसे ज्यादा भ्रष्ट है।
जानेमाने विकसित देशों में सबसे भ्रष्ट अमेरिका (7.2) है। उसके बाद फ्रांस (7.3), जर्मनी (7.8), इंग्लैंड (8.4) और कनाडा (8.7) का नंबर आता है। लेकिन ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के प्रमुख ने बड़ी दिलचस्प बात कही है कि विकसित देशों में भले ही भ्रष्टाचार कम हो, लेकिन विकासशील और गरीब देशों में इन्हीं देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भ्रष्टाचार फैलाने का जरिया बनती हैं। अपने देश में भ्रष्टाचार करें तो इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा सकती, लेकिन गैर-मुल्कों में इनका खुला खेल फरुखाबादी चलता है। वैसे कितना अजीब-सा तथ्य है कि जहां जितनी गरीबी है, वहां उतना ही ज्यादा भ्रष्टाचार है। यानी गरीबी मिटाकर ही भ्रष्टाचार का अंतिम खात्मा किया जा सकता है। इसका उल्टा नहीं।
भारत की स्थिति में पिछले साल से थोड़ा सुधार हुआ है। साल 2006 में यह 3.3 अंक के साथ 163 देशों में 70वें नंबर पर था, जबकि साल 2007 में 3.5 अंक के साथ 180 देशों में इसका नंबर 72वां है। इसका इकलौता कारण राइट टू इनफॉरमेशन (आरटीआई) एक्ट को माना गया है। लेकिन आरटीआई के दायरे में केवल नौकरशाही आती है। इसके दायरे से न्यायपालिका बाहर है और नेता तो छुट्टा घूम ही रहे हैं, जबकि कोई भी भ्रष्टाचार बिना उनकी मिलीभगत के संभव नहीं है।
अच्छा संकेत यह है कि सरकार भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 में ऐसा संशोधन लाने की तैयारी में है जिससे संसद और विधानसभा के पीठासीन अधिकारियों को भ्रष्ट विधायकों और सांसदों के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत देने का अधिकार मिल जाएगा। वैसे आपको बता दूं कि भ्रष्टाचार हटाने के कदम किसी आम आदमी के दबाव में नहीं, बल्कि मध्यवर्ग और कॉरपोरेट सेक्टर के दबाव में उठाए जा रहे हैं। ये अलग बात है कि इनका बाई-प्रोडक्ट आम आदमी को भी मिल सकता है।

  'चीन और भारत बराबर भ्रष्ट हैं'; मैंने देखी आस्तीन के अजगर की मणि, कल ही आस्तीन के सांप के बारे में आपने ही नहीं, मैंने भी खूब सुना है। आस्तीन के सांपों से मुझे भी आप जैसी ही नफरत है। लेकिन कल मैंने आस्तीन का अजगर देखा और यकीन मानिए, दंग रह गया। मैंने उसकी मणि को छूकर-परखकर देखा और पाया कि आस्तीन के इस अजगर में छिपा हुआ है एक उभरता हुआ प्रतिभाशाली लेखक।
माफ कीजिएगा। इस नए ब्लॉगर से आपका परिचय कराने के लिए इस पोस्ट में चौकानेवाला शीर्षक लगाकर मैं आपको यहां तक खींच कर लाया हूं। क्या करता मैं? इस ब्लॉगर ने अपना नाम ही आस्तीन का अजगर रखा है और इसके बारे में मैं और कुछ जानता ही नहीं। इसके प्रोफाइल से पता ही नहीं लगता कि इसका असली नाम क्या है, इसकी उम्र क्या है, रहता कहां है। और इसने अपने नए-नवेले ब्लॉग का नाम भी रखा है –अखाड़े का उदास मुगदर। मैंने धड़ाधड़ इस ब्लॉग की सभी पोस्ट पढ़ डाली और तभी पता चला कि इनके लेखन में कितना दम है, इनकी सोच में कितनी ताज़गी है। कुछ बानगी पेश है।
पहले जिये का कोई अगला पल नहीं होता की कुछ लाइनें देख लीजिए।
"कभी गौतम बुद्ध ने पीछे मुड़कर अपने दुनियादार अतीत को देखा होगा भी तो शायद किसी दृष्टांत के साथ ही. जो गैरजरूरी था, अस्वीकार्य था वह छोड़ दिया गया है, अब उसके लिए परेशान होने की क्या जरूरत है. जो सामने है उसे देखो और अगर तुम जी रहे हो उसे जो हाथ में है, तो फिर परेशान होने की क्या बात है. मेरा सोच ये है कि दुख हो या सुख अगर असली है तो इतना घना होगा कि आप सोच विचार करने लायक ही नहीं होंगे....
अक्सर वही दिन होते हैं, जब हमें सिर झुकाए सूरजमुखी और टूटे पर वाले परिंदे दिखलाई पड़ते हैं."
अब दूसरी पोस्ट
लौटने की कोकी एक झलक देखिए...
"कुछ खास लोगों के साथ आप अपनेई जगह नहीं होती  जिंदगी के सबसे अच्छे पल, सूर्यास्त, सबसे अच्छी शराब बांटना चाहते हैं. आप पहले तो ये साबित करना चाहते हैं कि वे आपके लिए खास हैं और दूसरा ये कि आप ऐसे किसी खास मुकाम तक पंहुच चुके हैं जो लोगों को जताना बताना जरूरी है. वरना उस चीज की कीमत ही वसूल नहीं होती, जो आपने हासिल की हो."
इस ब्लॉग की ताज़ातरीन पोस्ट है
अमहिया के एक जीनियस दोस्त को चिट्ठी। इसे आप खुद पढ़े। इससे पहले की कल 26 सितंबर वाली पोस्ट में सुनीता विलियम्स के गुजरात आने और नरेंद्र मोदी से मिलने-जुलने का रोचक विश्लेषण किया गया है। मुझे चारों पोस्टों को पढ़कर यह पता चला है कि आस्तीन का अजगर साइंस का विद्यार्थी रहा है। शायद वह भोपाल के किसी मीडिया संस्थान में काम करता है। बस, इसके अलावा उसका ब्लॉग कुछ नहीं बताता। हां, पूत के पांव पालने में ही दिख गए हैं। आस्तीन के अजगर ने अपनी मणि की झलक दिखला दी है। शायद आपको भी इसके ब्लॉग पर जाकर मेरे जैसा ही कुछ लगे। खैर, जो भी हो। इस नए अपरिचित ब्लॉगर का तहेदिल से स्वागत और उसके दमदार लेखन की शुभकामनाएं।

श्री साई सच्चरित्र

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श्री साई सच्चरित्र

अध्याय 1 - गेहूँ पीसने वाला एक अद्भभुत सन्त वन्दना-गेहूँ पीसने की कथा तथा उसका तात्पर्य ।

पुरातन पद्घति के अनुसार श्री हेमाडपंत श्री साई सच्चरित्र का आरम्भ वन्दना करते हैं ।

प्रथम श्री गणेश को साष्टांग नमन करते हैं, जो कार्य को निर्विध समाप्त कर उस को यशस्वी बनाते हैं कि साई ही गणपति हैं ।
फिर भगवती सरस्वती को, जिन्होंने काव्य रचने की प्रेरणा दी और कहते हैं कि साई भगवती से भिन्न नहीं हैं, जो कि स्वयं ही अपना जीवन संगीत बयान कर रहे हैं ।
फिर ब्रहा, विष्णु, और महेश को, जो क्रमशः उत्पत्ति, सि्थति और संहारकर्ता हैं और कहते हैं कि श्री साई और वे अभिन्न हैं । वे स्वयं ही गुरू बनकर भवसहगर से पार उतार देंगें ।
फिर अपने कुलदेवता श्री नारायण आदिनाथ की वन्दना करते हैं । जो कि कोकण में प्रगट हुए । कोकण वह भूमि है, जिसे श्री परशुरामजी ने समुद् से निकालकर स्थापित किया था । तत्पश्चात् वे अपने कुल के आदिपुरूषों को नमन करते हैं ।
फिर श्री भारदृाज मुनि को, जिनके गोत्र में उनका जन्म हुआ । पश्चात् उन ऋषियों को जैसे-याज्ञवल्क्य, भृगु, पाराशर, नारद, वेदव्यास, सनक-सनंदन, सनत्कुमार, शुक, शौनक, विश्वामित्र, वसिष्ठ, वाल्मीकि, वामदेव, जैमिनी, वैशंपायन, नव योगींद्, इत्यादि तथा आधुनिक सन्त जैसे-निवृति, ज्ञानदेव, सोपान, मुक्ताबाई, जनार्दन, एकनाथ, नामदेव, तुकाराम, कान्हा, नरहरि आदि को नमन करते हैं ।
फिर अपने पितामह सदाशिव, पिता रघुनाथ और माता को, जो उनके बचपन में ही गत हो गई थीं । फिर अपनी चाची को, जिन्होंने उनका भरण-पोषण किया और अपने प्रिय ज्येष्ठ भ्राता को नमन करते हैं ।
फिर पाठकों को नमन करते हैं, जिनसे उनकी प्रार्थना हैं कि वे एकाग्रचित होकर कथामृत का पान करें ।
अन्त में श्री सच्चिददानंद सद्रगुरू श्री साईनाथ महाराज को, जो कि श्री दत्तात्रेय के अवतार और उनके आश्रयदाता हैं और जो ब्रहा सत्यं जगनि्मथ्या का बोध कराकर समस्त प्राणियों में एक ही ब्रहा की व्यापि्त की अनुभूति कराते हैं ।
श्री पाराशर, व्यास, और शांडिल्य आदि के समान भक्ति के प्रकारों का संक्षेप में वर्णन कर अब ग्रंथकार महोदय निम्नलिखित कथा प्रारम्भ करते हैं ।

गेहूँ पीसने की कथा

सन् 1910 में मैं एक दिन प्रातःकाल श्री साई बाबा के दर्शनार्थ मसजिद में गया । वहाँ का विचित्र दृश्य देख मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि साई बाबा मुँह हाथ धोने के पश्चात चक्की पीसने की तैयारी करने लगे । उन्होंने फर्श पर एक टाट का टुकड़ा बिछा, उस पर हाथ से पीसने वाली चक्की में गेहूँ डालकर उन्हें पीसना आरम्भ कर दिया ।


मैं सोचने लगा कि बाबा को चक्की पीसने से क्या लाभ है । उनके पास तो कोई है भी नही और अपना निर्वाह भी भिक्षावृत्ति दृारा ही करते है । इस घटना के समय वहाँ उपसि्थत अन्य व्यक्तियों की भी ऐसी ही धोरणा थी । परंतु उनसे पूछने का साहस किसे था । बाबा के चक्की पीसने का समाचार शीघ्र ही सारे गाँव में फैल गया और उनकी यह विचित्र लीला देखने के हेतु तत्काल ही नर-नारियों की भीड़ मसजिद की ओर दौड़ पडी़ ।


उनमें से चार निडर सि्त्रयां भीड़ को चीरता हुई ऊपर आई और बाबा को बलपूर्वक वहाँ से हटाकर हाथ से चक्की का खूँटा छीनकर तथा उनकी लीलाओं का गायन करते हुये उन्होंने गेहूँ पीसना प्रारम्भ कर दिया ।


पहिले तो बाबा क्रोधित हुए, परन्तु फिर उनका भक्ति भाल देखकर वे षान्त होकर मुस्कराने लगे । पीसते-पीसते उन सि्त्रयों के मन में ऐसा विचार आया कि बाबा के न तो घरदृार है और न इनके कोई बाल-बच्चे है तथा न कोई देखरेख करने वाला ही है । वे स्वयं भिक्षावृत्ति दृारा ही निर्वाह करते हैं, अतः उन्हें भोजनाआदि के लिये आटे की आवश्यकता ही क्या हैं । बाबा तो परम दयालु है । हो सकता है कि यह आटा वे हम सब लोगों में ही वितरण कर दें । इन्हीं विचारों में मगन रहकर गीत गाते-गाते ही उन्होंने सारा आटा पीस डाला । तब उन्होंने चक्की को हटाकर आटे को चार समान भागों में विभक्त कर लिया और अपना-अपना भाग लेकर वहाँ से जाने को उघत हुई । अभी तक शान्त मुद्रा में निमग्न बाब तत्क्षण ही क्रोधित हो उठे और उन्हें अपशब्द कहने लगे- सि्त्रयों क्या तुम पागल हो गई हो । तुम किसके बाप का माल हडपकर ले जा रही हो । क्या कोई कर्जदार का माल है, जो इतनी आसानी से उठाकर लिये जा रही हो । अच्छा, अब एक कार्य करो कि इस अटे को ले जाकर गाँव की मेंड़ (सीमा) पर बिखेर आओ ।


मैंने शिरडीवासियों से प्रश्न किया कि जो कुछ बाबा ने अभी किया है, उसका यथार्थ में क्या तात्पर्य है । उन्होने मुझे बतलाया कि गाँव में विषूचिका (हैजा) का जोरो से प्रकोप है और उसके निवारणार्थ ही बाबा का यह उपचार है । अभी जो कुछ आपने पीसते देखा था, वह गेहूँ नहीं, वरन विषूचिका (हैजा) थी, जो पीसकर नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई है । इस घटना के पश्चात सचमुच विषूचिका की संक्रामतकता शांत हो गई और ग्रामवासी सुखी हो गये ।


यह जानकर मेरी प्रसन्नता का पारावार न रहा । मेरा कौतूहल जागृत हो गया । मै स्वयं से प्रश्न करने लगा कि आटे और विषूचिका (हैजा) रोग का भौतिक तथा पारस्परिक क्या सम्बंध है । इसका सूत्र कैसे ज्ञात हो । घटना बुदिगम्य सी प्रतीत नहीं होती । अपने हृतय की सन्तुष्टि के हेतु इस मधुर लीला का मुझे चार शब्दों में महत्व अवश्य प्रकट करना चाहिये । लीला पर चिन्तन करते हुये मेरा हृदय प्रफुलित हो उठा और इस प्रकार बाब का जीवन-चरित्र लिखने के लिये मुझे प्रेरणा मिली । यह तो सब लोगों को विदित ही है कि यह कार्य बाबा की कृपा और शुभ आशीर्वाद से सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया ।


आटा पीसने का तात्पर्य

शिरडीवासियों ने इस आटा पीसने की घटना का जो अर्थ लगाया, वह तो प्रायः ठीक ही है, परन्तु उसके अतिरिक्त मेरे विचार से कोई अन्य भी अर्थ है । बाब शिरड़ी में 60 वर्षों तक रहे और इस दीर्घ काल में उन्होंने आटा पीसने का कार्य प्रायः प्रतिदिन ही किया । पीसने का अभिप्राय गेहूँ से नहीं, वरन् अपने भक्तों के पापो, दुर्भागयों, मानसिक तथा शाशीरिक तापों से था । उनकी चक्की के दो पाटों में ऊपर का पाट भक्ति तथा नीचे का कर्म था । चक्की का मुठिया जिससे कि वे पीसते थे, वह था ज्ञान । बाबा का दृढ़ विश्वास था कि जब तक मनुष्य के हृदय से प्रवृत्तियाँ, आसक्ति, घृणा तथा अहंकार नष्ट नहीं हो जाते, जिनका नष्ट होना अत्यन्त दुष्कर है, तब तक ज्ञान तथा आत्मानुभूति संभव नहीं हैं ।


यह घटना कबीरदास जी की उसके तदनरुप घटना की स्मृति दिलाती है । कबीरदास जी एक स्त्री को अनाज पीसते देखकर अपने गुरू निपतिनिरंजन से कहने लगे कि मैं इसलिये रुदन कर रहा हूँ कि जिस प्रकार अनाज चक्की में पीसा जाता है, उसी प्रकार मैं भी भवसागर रुपी चक्की में पीसे जाने की यातना का अनुभव कर रहा हूँ । उनके गुरु ने उत्तर दिया कि घबड़ाओ नही, चक्की के केन्द्र में जो ज्ञान रुपी दंड है, उसी को दृढ़ता से पकड़ लो, जिस प्रकार तुम मुझे करते देख रहे हो ष उससे दूर मत जाओ, बस, केन्द्र की ओप ही अग्रसर होते जाओ और तब यह निशि्चत है कि तुम इस भवसागर रुपी चक्की से अवश्य ही बच जाओगे ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।        www.hemlata.webs.com                                                                                       your Comments